रघुपति कीह्नी बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ॥१२॥ सहस बदन तुह्मारो जस गावैं । अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं ॥१३॥ सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ॥१४॥ जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते । कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते ॥१५॥ तुम उपकार सुग्रीवहिं कीह्ना । राम मिलाय राज पद दीह्ना ॥१६॥ तुह्मरो मन्त्र बिभीषन माना । लङ्केस्वर भए सब जग जाना ॥१७॥ जुग सहस्र जोजन पर भानु । लील्यो ताहि मधुर फल जानू ॥१८॥ प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं । जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं ॥१९॥ दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुह्मरे तेते ॥२०॥ राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ॥२१॥ सब सुख लहै तुह्मारी सरना । तुम रच्छक काहू को डर ना ॥२२॥ आपन तेज सह्मारो आपै । तीनों लोक हाँक तें काँपै ॥२३॥ भूत पिसाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ॥२४॥ नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरन्तर हनुमत बीरा ॥२५॥ सङ्कट तें हनुमान छुड़ावै । मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥२६॥ सब पर राम तपस्वी राजा । तिन के काज सकल तुम साजा ॥२७॥
॥दोहा॥
पवनतनय सङ्कट हरन मङ्गल मूरति रूप । राम लखन सीता सहित हृदय बसहु सुर भूप ॥